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Friday, September 20, 2013

बचपन के पन्नोँ से - छुट्टियों के वो दिन

छुट्टी के दिनों में, खासकर गर्मी की छुट्टियों में गाँव के हम बच्चों के पास समय ही समय होता था। सुबह दस बजे तक खाना खा कर हम अपने घरों से निकल कर दालान पर गप-शप करते। वहाँ खेलते-कूदते और उकताकर सामने स्थित महादेव मंदिर में जा बैठते। वहाँ बड़े-बुज़ुर्गों की बात-चीत सुनते, उन्हें सुन कभी आश्चर्य करते, कभी खिलखिलाते और कभी अपनी इन हरकतों पर उनसे डांट खा जाते। इसलिये हमारा सबसे पसंदीदा जगह हमारे आम की फुलवारी थी, जहाँ हम चिड़ियों की भांति स्वच्छंदता से समय बिताते।

आम के इस फुलवारी में मैंने जीवन के कुछ बहुत हसीन लम्हे जीये हैं। उस समय फुलवारी में खेलना जो एक बड़ी स्वाभाविक सी बात लगती थी, आज मेरे लिये और उसी उम्र के आज मेरे बेटे के लिये ये कितने दुर्लभ हो गये हैं!

फुलवारी में हम बड़ी तैयारी के साथ जाते थे। हम में से हर कोई कुछकुछ लेकर आता। किसी के हाथ में बोरी, किसी के पास रस्सी, कोई कागज की छोटी पोटली में नमक तो कोई लाल मिर्ची का पाउडर और चोरी छिपे गमछे में लपेट कर चाकू! ये सब हमारे फुलवारी में समय बिताने की न्यूनतम आवश्यकताएं थीं।

फुलवारी पहुँचने के साथ हम पेड़ की नीची लचीली डालियों पर चढ़ जाते, दोनों पैरों को लटकाकर अपनी नन्हे हाथों से तने को मजबूती से पकड़ जोर से हिलाते, झुलते और हमें ऐसा प्रतीत होता था जैसे हम सब बड़े कुशल घुड़सवार हों। घुड़सवारी से थक कर हम पेड़ से नीचे उतरते और गिरे हुए आम के टिकोले चुनते। हम में से कोई रस्सी बाँध कर झूला लगाता और कोई टिकोलों को छिल कर इसके कच्चे गूदे को चाकू से छोटे-छोटे महीन टुकड़ों में काटता। खट्टे आम के टूकड़ों को गमछे पर रख नमक और लाल मिर्च का पाउडर छिड़का जाता और सही तरह इन्हे मिला कर गमछे से ही पोटली बनाकर ईंट या पत्थर पर घुमा-घुमा कर इसे पटका जाता था। इस तरह तैयार हुआ करता था हमारा चटपटा ‘घुम-घुमौवा’। आज भी इसका स्वाद ध्यान आते ही जीभ प्रचूर मात्रा में लार छोड़ने लगता है। ऐसी ही छोटी-छोटी बातों में दिन कब गुजर जाता था, अंदाज़ ही नहीं होता था।

रात का होना और दालान के छ्त पर, खुले आसमान के नीचे हम सभी बच्चे अपना-अपना बिछौना डाल कर मनपसंद जगह बड़े लोगों के आने के पह्ले ही घेर लिया करते थे। खुले आसमान के नीचे चाँद और सितारों की बादलों के साथ आँख मिचौली बड़ी अच्छी लगती थी। कभी बादल के एक समूह पर नज़र जाता, विचित्र आकृतियां दिखलाई देती जो पल भर बाद बदल जाती थीं। लेटे-लेटे दिन भर के धमाल की चर्चा होती, गिले-शिकवे होते और निद्रा अपने आगोश में कब ले लेती थी, पता ही नहीं चलता था।

कितने अनूठे थे वो दिन!


आज भी हमारे पास ये चाँद – सितारे हैं, बादल हैं; लेकिन अफसोस की इनकी सुंदरता को देखने का, समझने का न अब वक्त रहा, न समझ रहा। दुर्भाग्यवश, हमने अपने बच्चों से भी यह छीन लिया है!